Monday, September 29, 2008

मान्यता

एक और एक मिल के दो होता है, पर हम नही माने तो? एक और एक मिल के दो ही हो और तीन नही हो यह हमारी मान्यता है। सत्य भी है। पर हमारी मान्यता भी है। सत्य के ऊपर मान्यता की परत है। एक और एक मिल के तीन भी हो सकता है, सम्भावना तो है पर, हमने यही माना की एक और एक दो ही होगा। मान्यता पर निर्भर करता है। अगर यह कहें की मान्यता पर ही निर्भर करता है तो कोई बहोत बरी अतिशयोक्ति न होगी। हर एक परिस्थिति मे एक और एक दो ही हो यह कोई जरुरी नही है। अगर ऐसा हो तो जोरना सत्य हो जाएगा, फिर हमारी मान्यता का क्या होगा? हमने जो भी सत्य सीखे हैं चाहे वो सत्य हो या न हों उनपर मान्यता की मुहर लगाने के बाद ही सीखे हैं। कितना भी बरा गणितज्ञ हो, जो तरह तरह का गणितीय प्रमाण दे की एक और एक जुड़कर दो ही होगा लेकिन हम उस प्रमाण को नही माने, और नही मानने का जो भी मूल्य चुकाना परे वो चुकाएं तो फिर उसका प्रमाण दो कौडी का भी नही रह जाता है। पर मान्यता मष्तिष्क की उपज है। उस से सत्य का कुछ लेना देना नही है। सत्य भी एक विचारधारा है। की ऐसा है। हमने मान्यता दी है। ऋषियों मुनियों ने मान्यता दी है। स्थूल रूप मे मान्यता तो हमने सत्य की ऊपर भी लगाये है। इसका मूल कारन यह है की सत्य गौन रह्ता है। वह तुम्हे मानाने देता है। इस से सत्य को कोई फर्क नही परता है, फर्क तुम्हे भी नही परना चाहिए। अगर तुमने मान ली लिया की हम सत्य को नही मानेंगे तो वोही तुम्हारे लिए सत्य होगा। सत्य की अमान्यता भी सत्य हो सकती है। बशर्ते तुम ठिक से मानो. तुम ठिक से मानते भी नहि हो. मान्यता प्रगाढ होनि चाहिये. आगर मान्यता प्रगाढ नहि है तो वो द्वैत हो जाता है. और सत्य कि स्थिति अद्वैत है. इसलिये मान्यता ऐसि होने चाहिये कि उसमे शक कि कोइ गुनजाइश न हो.

1 comment:

रेवा स्मृति (Rewa) said...

Kuch manyatayen hi aaj problem ban rahi hai. Jis manyatayen ko ham jaanchkar nahi apnate hein usse problem hota hai.