Friday, September 19, 2008

शब्द और सत्य

मैंने अबतक सत्य के बारे मे जो कुछ भी लिखा, वो सत्य नही था। वो सत्य के बारे मे जानकारी थी। सत्य को नही लिखा जा सकता है, कभी नही लिखा गया, कभी किसी ने नही लिखा। पर हाँ सत्य के बारे मे लिखा जा सकता है। सत्य को नही लिखा गया है, सत्य के बारे मे थोरा बहोत लिखा गया है। पर हम समझ लेते हैं की सत्य ही लिखा गया है। शब्द सत्य को नही व्यक्त कर सकता है। अगर सत्य शब्द मे व्यक्त हो जाए तो शब्द सत्य हो जाएगा। फिर सत्य, सत्य na रहेगा। शब्द की सीमा होती है, सत्य की कोई सीमा नही। शब्द की उत्पत्ति होती है। सत्य की कभी उत्पत्ति होती नही। शब्द का कारण है। सत्य का कोई करना नही है। बस है। मनुष्य जाती के इतिहास मे सत्य के बारे मे जो कुछ भी लिखा गया है और जो लिखा जाएगा वो पूर्ण सत्य के सापेक्ष कुछ भी नही है। रत्ती भर भी सत्य नही लिख गया है। सत्य शब्द मे उतरता नही। क्योंकि, सत्य की अनुभूति अपूर्व है। बहोत कम लोगों ने वैसी अनुभूति की है और उनलोगों ने उस अनुभूति को व्यक्त करने के लिए नए शब्द का निर्माण नही किया। क्योंकि निर्माण करने के लिए इच्छा टी होनी चाहिए। पूर्ण सत्य के समय साड़ी इच्छाएं विसर्जित हो जाती हैं। इसलिए सत्य को ठीक ठीक व्यक्त करने वाले शब्द के निर्माण न हो सका। क्योनी जिनको सत्य मिला we सत्य मे ही लीं रहे। तो जिनको सत्य मिला वे सत्य के लिए शब्द नही बना सके। और जिन्होंने शब्द को बनाया उनको सत्य तो मिला नही, तो वे भी सत्य के लिए शब्द न बना सके। दोनों ही न बना सके। न सत्यदर्शी न शब्ददर्शी। सत्य मे शब्द के लिए जगह नही है। इतनी जगह नही है की शब्द wahan ठहरे। इसलिए बुद्ध भी सत्य के बारे मे जादा कुछ बोले नही। बुद्ध बोलें तो कैसे। सत्य शब्द मे उतरता नही है। अगर तुम बद्ध से पूछो की सत्य क्या है। तो वो कुछ नही बोलेंगे। मौन रहेंगे वो। क्योंकि शब्द का प्रोयाग करते ही सत्य सत्य न रहेगा। किसी भी शब्द मे, किसी भी वाक्य मे इतना सामर्थ्य नही है की वो सत्य का निरूपण कर सके। हमारे पास जीवन की हर एक अनुभूति के लिए शब्द नही हैं। कुछ अनुभूति ऐसी हैं जो बहोत कम लोगों को हुआ है। किसी बुद्ध किसी महावीर किसी जीसस को हुआ। तो उन्होंने शब्द तो बनाया नही। वो कोई कवि या लेखक तो थे नही की शब्द मे उनकी रूचि हो। थोरा बहोत बताये। पूर्ण तो वो भी नही बता सके। बताने की भी एक सीमा होती है। जितना उनसे बन सका वो बताये। हम माने या न माने, पर वो बताये। घूम घूम के बताये। अस्तांगिक मार्ग बताये। शब्द उतना महत्वपूर्ण नही है. शब्द धूल की तरह है। जब घोर्रे दौरते हैं तो धूल उरने लगती हैं। वैसे ही जब सत्य किसी के ह्रदय मे प्रकट होता है तो शब्द बनने लगते है, फिर वेदा, उपनिषद बनने लगते हैं। फिर धर्म बनने लगते हैं।

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