Saturday, January 17, 2009

प्रेम

जैसा की मैंने कहा था की प्रेम का निस्वार्थ होना जरुरी हैनिस्वार्थ प्रेम की कसौटी हैअगर प्रेम मे थोरा भी स्वार्थ है तो वो प्रेम नही हैफिर वो वासना हैइंग्लैंड मे जब औद्योगिक क्रांति हुई तो प्रेम का समाज मर गयासमय कम हो गयाप्रेम करने के लिए समय चाहिएअब समय कहाँ हैं? सुबह से लेके शाम तक तो हम अपने काम काज मे व्यस्त रहते हैंकाम इतना महत्वपूर्ण हो गया की प्रेम की अभिव्यक्ति भी काम करने से होने लगीशाम के बाद भी हमें चैन कहाँरात्रि मे तो हम भोजन करते हैं, टीवी देखते हैं, ऑरकुट करते हैं, फिर सो जाते हैंफिर हमने प्रेम किया कब? २४ घंटे के समय मे हमारे पास १० मिनट भी नही बचता है प्रेम करने के लिएहम हमेसा कुछ करते रहते हैंहमेसाऔर जन्म, जन्मान्तर, कल्प, कल्पान्तर तक करते रहते हैंऔर भी हमें कुछ नही मिलता हैमैंने आजतक ऐसे एक भी व्यक्ति से नही मिला जो कुछ नही कर रहा हैजेसुस ने कुछ नही किया होगाबुद्ध ने कुछ नही किया होगाकुछ नही किया और सब कुछ हुआहम किए और कुछ भी नही हुआहम करते ही रह गएप्रेम का हमें कुछ भी नही पता चल paaya। आज के समाज का जो प्रेम है वो रात का प्रेम हैक्योंकि दिन भर तो हम अपने काम काज मे व्यस्त रहते हैंदिन मे हम प्रेम की कल्पना भी नही कर पातेक्योंकि हमारे काम हमने कल्पना भी नही करने देतेहमने भौतिक उत्पाद को तो बढ़ा दिया पर उसका हमें मूल्य चुकाना पारामूल्य तो चुकाना ही परता हैबिना मूल्य चुकाए सिर्फ़ सत्य ही मिल सकता हैसत्य को छोर कर हर चीज का मूल्य चुकाना परता हैभौतिक उत्पाद मे बढोतरी का मूल्य ये है की हमने प्रेम को भुला दियाबस प्रेम राख के रूप मे रह गई हैकी कभी कोई रोमियो जूलियट हुआ होगाकी कभी कोई लैला मजनू हुआ होगाअब लैला मजनू नही पैदा होतेहो भी नही सकतेकोई सम्भावना नही है की पारमार्थिक प्रेमी पैदा हो जाएकहाँ से होगा ? समाज अब उपभोक्तावादी हो गया हैप्रेम करने की जगह नही है अबकब प्रेम करोगे? समय नही है प्रेम करने काआज हर कोई व्यस्त है अपने काम काज me। "Sweetheart, I am in the middle of a meeting call u later!!" अब प्रेम नही होते हैं, अब मीटिंग होती है

प्रेम का वास्तविक सिद्धांत था अद्वैत को प्राप्त करना। प्रेम अद्वैत की तरफ की यात्रा है। दो मिल के एक होना। एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। प्रेम तो बस माध्यम है। होना तो हमें एक ही है। चाहे वो प्रेम से हो या फिर ध्यान से हो या फिर किसी और माध्यम से हो। हम दो नही समझ सकते। दो होता भी नही हैं। क्योंकि अस्तित्व एक है। इसलिए एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। अगर तुम ठीक से अवलोकन करो तो हमारे सारे कार्य अद्वैत की तरफ़ की यात्रा है। बस हमें प्रतीति होती है की बहोत कुछ हो रहा है। हो कुछ भी नही रहा है। मृगतृष्णा की भांति हम जीवन काटते हैं। की भविष्य मे कुछ मिल जाए। अब तक तो कुछ मिला नही। अगर कुछ मिलना ही होता तो अब तक मिल गया होता। जन्म जन्मान्तर बीत जाते हैं फिर भी हमारी निगाहें भविष्य पे टिकी होती हैं। की कहीं कुछ मिल जाए। और नही मिलता है। कभी किसी को नही मिला। कुछ है ही नही तो मिलेगा क्या। और अगर मिले भी, तो मिल ही गया। अब मिले, तब मिले उस से क्या फर्क परता है। अगर मिलेगा, तो ये समझो की मिल ही गया। क्योंकि मिलेगा ही, मतलब मिल ही गया। फिर किस बात का रोना धोना। क्योंकि सब तो मिला ही हुआ है तुम्हे। मिलेगा, मतलब मिल ही गया, मतलब मिला ही हुआ है।

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