Wednesday, July 9, 2008

निस्वार्थ प्रेम

प्रेम अगर निस्वार्थ न हो तो वह प्रेम नही। स्वार्थ मे कारण होता है। और स्वार्थ होते ही प्रेम अप्रेम हो जाता है। शुरू मे हो सकता है की प्रेम थोरा स्वार्थी हो। पर जब प्रेम अपनी चरम सीमा पर होता है तो वहां निस्वार्थ ही बचता है। क्योंकि तब सारे कारण समाप्त हो जाते हैं। प्रेम माध्यम है। सत्य लक्ष्य है। तो प्रेम के माध्यम से सत्य को जाना जा सकता है। इसलिए प्रेम के बारे मे इतनी सारी बातें कही गई हैं। जीसस ने प्रेम को इश्वर कहा है। इसके पीछे कारन है। क्योंकि प्रेम मे इतनी शक्ति है की इश्वर का दर्शन करा दे। पर उस तरह के प्रेम का निस्वार्थ होना जरुरी है। तुमने जिस प्रेम को जाना है वो असली प्रेम नही है। वह प्रेम की छाया है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि है। हिन्दी सिनेमा मे जो तुम प्रेम देखते हो वह कुछ भी नही है। वह मूलतः शारीरिक और आर्थिक है। अगर तुम प्रेम के काफ़ी गहरे मे उतरोगे तो पाओगे की वहां सिर्फ़ अस्तित्व बचता है। और अस्तित्व akaaran है। इसलिए प्रेम भी निस्वार्थ होगा। क्योंकि स्वार्थ तो तुम्हारी हो abhivyakti है। स्वार्थ मे तो तुम ही व्यक्त हो जाते हो। फिर उस मे प्रेम कहाँ रहा। फिर तो तुम ही तुम हो गए। वहां प्रेम नही रहता, वहाँ vaasana जनम ले लेती है। हमारी सारी vaasnayen हमारी ही aviwyakti हैं। और स्वार्थ ahamkaar से पैदा होता है। Ahamkaari आदमी स्वार्थी होता है। इसलिए अगर तुम्हे सच्चा प्रेमी bananaa है तो सबसे pahle अपने ahamkaar का नाश करो। Ahamkaar नाश होते ही तुम प्रेमी हो जाओगे। इधर ahamkaar नाश हुआ की udhar तुम प्रेमी हो गए। एक का नाश होते ही दूसरा abhivyakt हो जाएगा। जीसस प्रेमी था। वो असली प्रेमी था। क्योंकि उसने सब को प्रेम किया। प्रेम की कोई सीमा नही होती है। प्रेम की अगर सीमा है तो प्रेम प्रेम न होगा। अगर प्रेम की सीमा है तो फिर उसका कारण होगा। कारण होते ही स्वार्थ हो जाएगा। असीम का कोई कारण नही होता। कारण तो सिर्फ़ सीमाओं का होता है। इसलिए सीमाओं के अन्दर रह कर प्रेम कर pana सम्भव नही है। सीमाओं के अन्दर समझौते होते हैं। प्रेम samjhautaa नही है। जब जब प्रेम hotaa है तब तब seemaayen tootati हैं।

1 comment:

L.Goswami said...

जो निस्वार्थ न हो वह प्रेम होता ही नही ,अच्छा लिखा आपने वैसे "तुमने इश्क का नाम सुना है हमने इश्क किया गुड से मीठा इश्क ..."