ज्ञान अकेला नीरस है। जबतक उसमे प्रेम के फूल न खिले टू उसे व्यर्थ जानना। ज्ञान मन की अभिव्यक्ति है। प्रेम हृदय की अभिव्यक्ति है। और सत्य पूर्णतः पारमार्थिक है। सत्य, प्रेम और ज्ञान के ऊपर है। जब प्रेम और ज्ञान मिल जायें टू सत्य उपलब्ध हो सकता है। मन चंचल है। इसलिए ज्ञान भी स्थिर नही रहता। हृदय थोरा स्थिर रहता है। इसलिए प्रेम मे थोरा स्थायित्व रहता है। शुद्ध प्रेम स्थायी होगा। पर जो प्रेम ज्ञान के आधार पर टिका हो, जो विश्लेषण के आधार पर टिका हो, जो शर्तों के आधार पर टिका हो वो प्रेम स्थायी नही होगा। वो प्रेम होगा ही नही। वो कुछ और होगा। वह विवाह होगा। कोई भी नाम दे दो। अगर विवाह मे प्रेम की थोरी भी संभावना होती टू अब तक अरबों खरबों बुद्ध जैसे आदमी पैदा हो सकते थे। क्योंकि अरबों खरबों विवाहें हुईं हैं। पर थोरी संभावना टू है। की विवाह के माध्यम से प्रेम को जाना जाए। विवाह एक सामजिक व्यवस्था है। शायद समाज ने प्रेम को समझने के लिए विवाह का ईजाद किया हो। सत्य के मार्ग मे प्रेम और ज्ञान दोनों बाधाएं हैं। क्योंकि दोनों ही अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति सत्य का दर्शन नही कराती। पर प्रेम उतनी बरी बाधा नही है जितना बरी बाधा ज्ञान है। प्रेम टू सत्य के काफी निकट है, पर सत्य नही है। ज्ञान बहुत बरी बाधा है। तुम्हारी ९९% से भी ज्यादा अभियक्ति पूर्णतः मानसिक होती है। क्योंकि आज का समाज पूर्णतः मानसिक हो गया है है। प्रेम भी मानसिक हो गया है। मानसिक प्रेम । तुम जिसे प्रेम करोगे उसे अपने मन के तल पर तौल के देखो को वो खरा उतरता है या नही। तुम प्रेम का विश्लेषण करो। पहले ऐसा नही होता था। पहले सिर्फ़ शुद्ध प्रेम होता है। वहाँ विश्लेषण के लिए कोई जगह नही होती थी। टू फिर लैला और मजनू जैसी जोड़ी पैदा होती थी। क्योंकि उनका प्रेम पूर्णतः ह्रदय के तल पर है। वहाँ मन के लिए कोई जगह नही है। मैं जो ये लेख लिख रहा हूँ, यह भी मानसिक है। मन के माध्यम से ह्रदय को व्यक्त करने की कोशिश करे रहा हूँ। ऐसा हो सकता है। मन ह्रदय की अभिव्यक्ति को शब्द मे ढालने मे सक्षम है। कवि लोग यही टू करते हैं। पर ह्रदय मन की अभिव्यक्ति क प्रकट नही कर सकता। इसलिय कभी कभी यह समझ पाना की कविता मन के तल से लिखी गई है या वस्तुतः ह्रदय से लिखी गई है मुश्किल हो जाता है।
थोरा सा ज्ञान काफी है। बस इतना ज्ञान हो जाए की ज्ञान व्यर्थ है काफ़ी होगा। सारा ज्ञान टू यही कहता है की ज्ञान व्यर्थ है। समझने वाले समझ लेते हैं। बुद्ध, महावीर समझ गए थे। हो सकता है तुम न समझ पाओ। पात्रता चाहिए। थोरी पात्रता चाहिए। पानी १०० डिग्री पर ही उबलता है। वस्तुतः पात्रता भी नही चाहिए। वस्तुतः कुछ भी नही चाहिए। पर यह बात अति-पारमार्थिक हो जाती है। इसलिए तुम समझ नही पाते। पर पात्रता तुम समझ लोगे। की पात्रता है या नही। इसलिए टू जादातर योग का आधार पात्रता है। अष्टावक्र के योग का आधार पात्रता नही है। उनके नजर मे सबकी पात्रता बराबर है। उनका आधार अस्तित्व है। अस्तित्व मे कुछ भी छोटा या बरा नही होता। अस्तित्व हर जगह बराबर है। बस इतना ही समझ लेना काफ़ी है। इससे जादा कुछ है भी नही समझने के लिए। यही सत्य है।
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