सत्य को जानने के लिए प्रेम सबसे सरल माध्यम है। ज्ञान से भी सत्य पाया जा सकता है। पर थोरा मुश्किल है। क्योंकि ज्ञान होते ही अहंकार हो जाता है। ज्ञान होने का अहंकार। अहंकार सत्य के प्रतिकूल की दिशा है। हमने जो औपचारिक शिक्षा प्राप्त की उसने हमारे अहंकार को ही तो बढाया है। ठीक है उस से एक नौकरी भी मिली है। पर मूलतः हमारे अहंकार मे वृद्धि हुई है। जिस चीज के बारे मे तुम जानते हो उसकी महत्ता घट जाती है। क्योंकि वो तुम अब जान गए। वो अब तुम्हारी परिधि के अन्दर आ गई। अब उसमे उतना सार न रहा जो पहले था। वो अब नीरस हो गया। बच्चों को देखो। उनकी शिक्षा कम होती है। पर उनके जीवन मे एक क्रांति होती है, एक प्रवाह होता है। एक अखंड प्रवाह होता है। एक सार होता है। वही सार ज्ञान होते ही, किताब पढ़ते ही निसार हो जाता है। इसलिए तो बच्चे लोग खुश रहते हैं। मैंने आजतक एक भी बच्चे को दुखी नही देगा। वो रोते हैं , पर वो स्वभाभिक है। हम नही रोते हैं, अस्वाभाविक है। हम बच्चों के ठीक विपरीत काम करते हैं। जादा ज्ञान हो जाना, जादा पुस्तक पोथी पढ़ लेना समस्या पैदा कर सकता है। और किया है। थोरा सा ज्ञान काफ़ी है। और अरबों खरबों पुस्तक पढ़ के भी वोही थोरा सा ज्ञान मिलता है। उस ज्ञान का कोई मोल नही है जो ज्ञान कारन पे टिका है। जिसका कारण है उसे तुम अज्ञान जानना है। उस तरह के ज्ञान मे कुछ भी नही रखा है। बस प्रतीति होती है, की काफ़ी कुछ है, है कुछ भी नही। वह ज्ञान जो अकारण हो वही असली ज्ञान है। करनिक ज्ञान तो अकरानिक ज्ञान का ही विस्तार है। अगर किताब पुस्तक पोथी पढ़ के ही ज्ञान मिलता तो जीसस, कबीर और रामकृष्ण को कभी ज्ञान नही मिलता। जीसस बकरी चराता था, और सबसे बरा धर्म प्रवर्तक बना। इसलिये शुद्ध प्रेम मे सत्य के प्रकट होने की थोरी बहुत सम्भावना है। क्योंकि उसमे कारण नही होता है। बस होता है। क्यों, कैसे के लिए उतनी जगह नही है वहां। विश्लेषण करते ही शुद्ध प्रेम अशुद्ध हो जाता है। फिर वो प्रेम रहा ही नही, वो वासना हो जाती है।
प्रेम कई प्रकार हो हो सकते हैं। पिता पुत्र का प्रेम, माँ बेटे का प्रेम, भाई बहन का प्रेम, पति पत्नी का प्रेम। और इन सबसे ऊपर आत्म-प्रेम। आत्म प्रेम सबसे ऊपर है। वास्तव मे मैं आत्म प्रेम की ही बात कर रहा था। पहले अपने आप को प्रेम करना सीखो, तब तुम दूसरे को भी प्रेम कर पाओगे। दुनिया मे अब तक जितने भी प्रेमी हुए हैं उन्होंने पहले अपने आप को प्रेम किया है। पहले अपने को जाना है। तभी वे दूसरे को भी प्रेम कर पाये। बुद्ध ने पहले अपने आप को प्रेम किया। फिर उन्होंने दूसरों को, आनंद को प्रेम किया। इसलिये पहले अपने बारे मे जानो तभी तुम दूसरे का कुछ कर सकते हो। तुम्हे अपने बारे मे तो ख़ुद कुछ पता नही। और प्रेम की गंगा बहने चले हो। जीसस ने प्रेम के गंगा बहाई थी। तो सारा रोमन साम्राज्य हिल गया था। प्रेम मे इतनी शक्ति है की रोम जैसे साम्राज्य को तहस नहस कर दे। और ऐसा ही हुआ। जीसस की शूली के बाद रोमन साम्राज्य जादा दिन न टिक सका। टिकेगा भी नही। सीजरों को दयनीय स्थिति हुई होगी। ऐसा अकसर होता है। अगर समाज मे कोई बहोत बरा प्रेमी पैदा ले ले तो समाज उसे झेल नही पाती. उसकी अपर्मर्थिकता समाज के लिए कांटे जैसे हो जाती है। समाज ने कभी भी शुद्ध प्रेम का पक्ष नही लिया है। एक हद तक लिया है पर उस से जादा नही। समाज की एक सीमा है। प्रेम की कोई सीमा नही। प्रेम असीम है। इसलिये समाज उसे झेल नही पाती।
5 comments:
प्रेम की कोई सीमा नही। प्रेम असीम है। इसलिये समाज उसे झेल नही पाती।
Very true! Lekin hame kabhi-2 seema mein rahkar bhi kuch kaam karna chahiye. Isn't it?
By the way not seeing you on my blog, it seems you are busy....hmmm.
rgds.
Nice insight Rewa!
Great observation, I never knew u r such a deep thinker, Ur this blog has really surprised me, I always knew u r different, but never thought u would become such a sensible and thinker, to be honest it was more than my expectation. I am really happy that I have seen you evolving like this.
Keep this spirit up.
Post a Comment