पुस्तक पता है क्या होता है? पुस्तक मे क्या छपा है? पुस्तक मे ज्ञान नही hai . पुस्तक मे ज्ञान के बारे मे जानकारी छपी है. पुस्तक पढने से हमे ज्ञान नही, ज्ञान के बरे मे सूचना प्राप्त होती है. आज तक किसी को पुस्तक-पोथी पढे के ज्ञान नही मिला. ज्ञान छूट जरूर गया. मैं पुस्तक का कोई विरोधी नही हूँ. मैंने भी बचपन मे बहोत सी पुस्तकें पढी हैं. पुस्तक पढ़ पढ़ के यही पता चला की पढ़ना बेकार है। पुस्तक पढने एक उद्देश्य ही यही होता है की फिर पुस्तक न पढ़ना परे। जैसे तुम कोई पुस्तक पढ़ते हो, उसके बाद उसे दुबारा टू पढ़ते नही। पुस्तक पढने का उद्देश्य ही यही है की पुस्तक पढने से छुट्कारा मिले। वस्तुतः य बात हर जगह लागू होती है. तुम कोई भी काम इसलिए करते हो की उसे दुबारा न करना परे। जैसे तुम खाना खाते हो, वो इसलिए की बाद मे न खाना परे। जब तुम एक बार खा लेते हो, टू तुम्हे उसके बाद टू नही खाना परता है। तुम जो भी करते हो उसे खत्म करने के लिए ही करते हो चाहे वो तात्कालिक रूप से ही क्यों न हो। पुस्तक पढने का एक मातृ उद्देश्य ये होना चाहिए की फिर पुस्तक न पढ़ना परे। कितने पुस्तक पढोगे। अरबों खरबों पुस्तकें होती है ग्रंथालय मे। सब पढोगे? जैसे मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ ली क्योंकि मुझे दोबारा इंजीनियरिंग की पढ़ाई न करना परे। कोई भी काम करने के एक मात्र उद्देश्ये ये होता है की उस काम से मुझे छुट्कारा मिल जाए। अगर तुम्हे पहले से ही पता हो की इस काम से छुट्कारा न मिलेगा टू तुम वो काम कभी न करोगे। तुम ऑफिस जाते हो आने के लिए. अगर तुम्हे पता हो की आज ऑफिस गए टी वापस न आएंगे टू तुम कभी भी ऑफिस न जाओगे। यही कारन है की सारा अस्तित्व संतुलन मे है. नही टू अस्तित्व असुन्तुलित हो जाएगा.
पुस्तक को दो प्रकार से पढ़ा जाता है। पहला - परीक्षा पास करने के लिए, ज्ञान बढ़ाने के लिए। दूसरा - आत्मसात करने के लिए। जादातर लोग पहले तरीके से पुस्तक पढ़ते हैं। उस तरह के पुस्तकों की संख्या भी जादा होती है। रामकृष्ण परमहंस जब अष्टावक्र गीता पढ़ते थे टू वो उनका आत्मसात था. वो अपना ज्ञान बढ़ने के लिए अष्टावक्र गीता नही पढ़ते थे. ज्ञान टू यही कहता है की सारा ज्ञान गिर जाए. ज्ञान ज्ञान मे बाधा हो जाती है. ज्ञान ज्ञान होने को रोक लेता है तुम जब साधारण पुस्तक पढ़ते हो टू वो अंत तक पढ़ते हो क्योंकि उसमे ज्ञान का कोई अंत नही होता है. फिर उस किताब का दूसरा संस्करण भी होता है. दूसरे का तीसरा संस्करण भी होता है. तुम सारे संस्करण पढो, फिर भी कहाँ ज्ञान होता है? होता कुछ भी नही है, बस तुम थोरे विवादी हो जाते हो, थोरी किताबी बुद्धि हो जाती है, तुम किताब लिखने वाले जैसे सोचने लगते हो। तुम्हे किताब की विश्लेशानामै भाषा समझे मे आने लगती है. तुम साक्षी से हट कर विश्लेषण वादी हो जाते हो. पुस्तक तुम्हे हमेशा सत्य से दूर ले जाने की कोसिस करेगा. लेखक तुम पर अपनी अविव्यक्ति थोपेगा. तुम्हारे मानसपटल पर अपनी अव्धारानाओं को रखेगा। साधारण किताब से यही टू होता है. पर आध्यात्मिक किताब जैसे की अष्टावक्र गीता मे ऐसा नही होता । पढने वाले पर निर्भर करता है. अष्टावक्र ऐसी पुस्तक है जिसमे हर श्लोका का एक ही अर्थ है. हर चैप्टर मे एक ही बात कही गई है. साधारण किताब मे हर चैप्टर मे अलग अलग सूचना होता है. क्योंकि वहाँ अनंत सूचनाएं हैं। एक चैप्टर मे सारी सूचनाओं को कैद कर लेना सम्भव नही है. इसलिए टू इतनी सारी किताब हैं. दूसरा चैप्टर टू यही बताता hai की पहला चैप्टर अधूरा था। जैसे मान लो एक ऐसी किताब हो जो हजार पन्ने की हो और हर पन्ने मे राम राम लिखा हो। क्या तुम वो किताब khareedoge? अष्टावक्र गीता ऐसी हो किताब है. अष्टावक्र गीता के हर श्लोक का एक ही मतलब है. क्यों की अष्टावक्र का उद्देश्य ये है की तुम्हे किताब पढने की अब जरुरत न परे। अगर किसी लेखक को ये पता चल जाए की उसका किताब एक बार पढने के बाद उसका दूसरा कोई किताब न पढेगा टू वो किताब छापना का धंधा ही बंद कर दे. वो टू यहो चाहता है की तुम पढो जिस से उसका व्यापर चले. अष्टावक्र व्यापार नही करते हैं उनको व्यापार से कोई लेना देना नही है. वो टू यही चाहते हैं की तुम पढ़ना छोरो, बहोत पढ़ लिए A, B, C, D. अब आत्मसात करो. करना छोरो. तुम ये कह सकते हो की आत्मसात करना भी टू एक करना ? नही, ऐसा नही है. आत्मसात मे करने वाला नही रहता, वहाँ सिर्फ़ सत्य रहता है।
अष्टावक्र गीता का २-३ श्लोक काफ़ी है सत्य को जानने के लिए. तुम ख़ुद सोचो न की सत्य का किताब पढने से क्या लेना देना. अस्तित्व को ये भी नही पता है की किताब नाम की कोई चीज भी होती है। किताब पूर्णतः अपारामार्थिक है। और तुम किताब पढ़ पढ़ के अस्तित्व को जानने की बार करते हो. अस्तित्व को जानने के लिए ख़ुद ही अस्तित्व होना परता है. जैसे की तूम yelektronn के बारे मे जो भी जानते हो वो सब किताबी ज्ञान है. एलेक्ट्रों की असली मे जानने के लिए एलेक्ट्रों होना परता है. एलेक्ट्रों ही एलेक्ट्रों को जनता है. तुम एलेक्ट्रों के बरे मे बहोत कम जानते हो. कबीर थिक कहते थे - पोथी पढी पढी जग मुआ, पंडित भय न कोई ढाई आखर प्रेम के, पढे सो पंडित हो. अगर तुम प्रेम समझे गए टू ये सारे पोथी, ग्रन्थ बकवास हैं. ज्ञान तुम्हारे हृदय मे है.
तुम एक वृक्ष को देखो और तुम्हे ज्ञान न मिले टू समझ लेना की तुम मे कुछ कमी है. और पता hai , यह समझते ही तुम ज्ञानी हो जाओगे। तुम अगर यह भी समझ लो की मैं अज्ञानी हूँ टू भी kaafi hai. यह समझ लेना की मैं ज्ञानी हूँ या अज्ञानी हूँ एक ही बात hai. बस समझना काफ़ी होगा. समझते ही जो था वो प्रकट हो जाएगा. फिर ज्ञान और अज्ञान कहाँ? जो था वो प्रकट हो गया. अस्तित्व ज्ञान के रूप मे प्रकट हो या अज्ञान के रूप मे प्रकट हो इस से क्या फर्क परता hai. बस अस्तित्व प्रकट हो जाए, इतना काफ़ी hai. ज्ञान और अज्ञान टू समाज की विचारधारा है. शुद्ध अस्तित्व मे ज्ञान और अज्ञान के लिए कोई जगह नही hai. उस विराट अस्तित्व को वृक्ष मे देखने के लिए परिपक्व चैतन्य चाहिए. लाओत्सो के साथ ऐसा ही हुआ था. वो एक पेर के नीच बैठा हुआ था, ऊपर से एक सूखा हुआ पत्ता नीचे गिरा और उसे ज्ञान मिल गया. उस सूखे हुए पत्ते मे उसे अपना जीवन दिखा गया, ये संसार दिख गया. एक सूखा हुआ पत्ता काफी है. बहोत है तुम ये पहार, ये नदी, ये पक्षी, ये आकाश को देखो और ज्ञान न मिले - टू समझे लेना की अभी टाइम नही आया है. लेकिन थिक से समझना । इतना ही काफ़ी होगा। कोयल की एक goonj, सरिता का छलछल बहता पानी, पक्ष्हिओं का कलरव काफ़ी होगा तुम्हें असीम से जोरने मे. अनंत शून्य से हमारा आविर्भाव हुआ hai. पता hai ये जो तुम्हे चैतन्य की अनुभूति हो रही hai तुम इसे साधारण मत समझना. ये जो तुम देख रहे हो, जो सुन रहे हो, जो अनुभव कर रहे हो ये सब व्यक्त हुआ hai. तुम मे अव्यक्त तुम्हारे माध्यम से व्यक्त हुआ hai. तुम एक एक क्षण avyakt को व्यक्त मे परिवर्तित कर रहे हो. यह तुम्हारा सौभाग्य hai की अयक्त ने तुम्हे चुना, तुम्हे माध्यम बनाया ये संसार शून्य से निकलकर व्यक्त हुआ hai और अंततः शून्य मे ही मिलेगा. इसलिए तुम सत्य पाने की चिंता मत करना। देर सबेर सत्य सभी को मिलेगा ऐसा कभी न होगा की तुम अनंत काल तक सत्य से च्युत rahoge. एक एक अनु तक को सत्य मिलेगा. एक दिन. इसलिए टू मैं कहता हूँ की तुम जो कर रहे हो थिक ही hai. ये पुरा अस्तित्व एक साथ अव्यक्त की दिशा मे जा रहा hai. सत्य की स्थिति कुछ ऐसी hai - जब सब कुछ गिर जाए, अहंकार, ज्ञान ये सब गिर जायें, tab जो स्थिति बनती hai वही सत्य की स्थिति hai.
पुस्तक को दो प्रकार से पढ़ा जाता है। पहला - परीक्षा पास करने के लिए, ज्ञान बढ़ाने के लिए। दूसरा - आत्मसात करने के लिए। जादातर लोग पहले तरीके से पुस्तक पढ़ते हैं। उस तरह के पुस्तकों की संख्या भी जादा होती है। रामकृष्ण परमहंस जब अष्टावक्र गीता पढ़ते थे टू वो उनका आत्मसात था. वो अपना ज्ञान बढ़ने के लिए अष्टावक्र गीता नही पढ़ते थे. ज्ञान टू यही कहता है की सारा ज्ञान गिर जाए. ज्ञान ज्ञान मे बाधा हो जाती है. ज्ञान ज्ञान होने को रोक लेता है तुम जब साधारण पुस्तक पढ़ते हो टू वो अंत तक पढ़ते हो क्योंकि उसमे ज्ञान का कोई अंत नही होता है. फिर उस किताब का दूसरा संस्करण भी होता है. दूसरे का तीसरा संस्करण भी होता है. तुम सारे संस्करण पढो, फिर भी कहाँ ज्ञान होता है? होता कुछ भी नही है, बस तुम थोरे विवादी हो जाते हो, थोरी किताबी बुद्धि हो जाती है, तुम किताब लिखने वाले जैसे सोचने लगते हो। तुम्हे किताब की विश्लेशानामै भाषा समझे मे आने लगती है. तुम साक्षी से हट कर विश्लेषण वादी हो जाते हो. पुस्तक तुम्हे हमेशा सत्य से दूर ले जाने की कोसिस करेगा. लेखक तुम पर अपनी अविव्यक्ति थोपेगा. तुम्हारे मानसपटल पर अपनी अव्धारानाओं को रखेगा। साधारण किताब से यही टू होता है. पर आध्यात्मिक किताब जैसे की अष्टावक्र गीता मे ऐसा नही होता । पढने वाले पर निर्भर करता है. अष्टावक्र ऐसी पुस्तक है जिसमे हर श्लोका का एक ही अर्थ है. हर चैप्टर मे एक ही बात कही गई है. साधारण किताब मे हर चैप्टर मे अलग अलग सूचना होता है. क्योंकि वहाँ अनंत सूचनाएं हैं। एक चैप्टर मे सारी सूचनाओं को कैद कर लेना सम्भव नही है. इसलिए टू इतनी सारी किताब हैं. दूसरा चैप्टर टू यही बताता hai की पहला चैप्टर अधूरा था। जैसे मान लो एक ऐसी किताब हो जो हजार पन्ने की हो और हर पन्ने मे राम राम लिखा हो। क्या तुम वो किताब khareedoge? अष्टावक्र गीता ऐसी हो किताब है. अष्टावक्र गीता के हर श्लोक का एक ही मतलब है. क्यों की अष्टावक्र का उद्देश्य ये है की तुम्हे किताब पढने की अब जरुरत न परे। अगर किसी लेखक को ये पता चल जाए की उसका किताब एक बार पढने के बाद उसका दूसरा कोई किताब न पढेगा टू वो किताब छापना का धंधा ही बंद कर दे. वो टू यहो चाहता है की तुम पढो जिस से उसका व्यापर चले. अष्टावक्र व्यापार नही करते हैं उनको व्यापार से कोई लेना देना नही है. वो टू यही चाहते हैं की तुम पढ़ना छोरो, बहोत पढ़ लिए A, B, C, D. अब आत्मसात करो. करना छोरो. तुम ये कह सकते हो की आत्मसात करना भी टू एक करना ? नही, ऐसा नही है. आत्मसात मे करने वाला नही रहता, वहाँ सिर्फ़ सत्य रहता है।
अष्टावक्र गीता का २-३ श्लोक काफ़ी है सत्य को जानने के लिए. तुम ख़ुद सोचो न की सत्य का किताब पढने से क्या लेना देना. अस्तित्व को ये भी नही पता है की किताब नाम की कोई चीज भी होती है। किताब पूर्णतः अपारामार्थिक है। और तुम किताब पढ़ पढ़ के अस्तित्व को जानने की बार करते हो. अस्तित्व को जानने के लिए ख़ुद ही अस्तित्व होना परता है. जैसे की तूम yelektronn के बारे मे जो भी जानते हो वो सब किताबी ज्ञान है. एलेक्ट्रों की असली मे जानने के लिए एलेक्ट्रों होना परता है. एलेक्ट्रों ही एलेक्ट्रों को जनता है. तुम एलेक्ट्रों के बरे मे बहोत कम जानते हो. कबीर थिक कहते थे - पोथी पढी पढी जग मुआ, पंडित भय न कोई ढाई आखर प्रेम के, पढे सो पंडित हो. अगर तुम प्रेम समझे गए टू ये सारे पोथी, ग्रन्थ बकवास हैं. ज्ञान तुम्हारे हृदय मे है.
तुम एक वृक्ष को देखो और तुम्हे ज्ञान न मिले टू समझ लेना की तुम मे कुछ कमी है. और पता hai , यह समझते ही तुम ज्ञानी हो जाओगे। तुम अगर यह भी समझ लो की मैं अज्ञानी हूँ टू भी kaafi hai. यह समझ लेना की मैं ज्ञानी हूँ या अज्ञानी हूँ एक ही बात hai. बस समझना काफ़ी होगा. समझते ही जो था वो प्रकट हो जाएगा. फिर ज्ञान और अज्ञान कहाँ? जो था वो प्रकट हो गया. अस्तित्व ज्ञान के रूप मे प्रकट हो या अज्ञान के रूप मे प्रकट हो इस से क्या फर्क परता hai. बस अस्तित्व प्रकट हो जाए, इतना काफ़ी hai. ज्ञान और अज्ञान टू समाज की विचारधारा है. शुद्ध अस्तित्व मे ज्ञान और अज्ञान के लिए कोई जगह नही hai. उस विराट अस्तित्व को वृक्ष मे देखने के लिए परिपक्व चैतन्य चाहिए. लाओत्सो के साथ ऐसा ही हुआ था. वो एक पेर के नीच बैठा हुआ था, ऊपर से एक सूखा हुआ पत्ता नीचे गिरा और उसे ज्ञान मिल गया. उस सूखे हुए पत्ते मे उसे अपना जीवन दिखा गया, ये संसार दिख गया. एक सूखा हुआ पत्ता काफी है. बहोत है तुम ये पहार, ये नदी, ये पक्षी, ये आकाश को देखो और ज्ञान न मिले - टू समझे लेना की अभी टाइम नही आया है. लेकिन थिक से समझना । इतना ही काफ़ी होगा। कोयल की एक goonj, सरिता का छलछल बहता पानी, पक्ष्हिओं का कलरव काफ़ी होगा तुम्हें असीम से जोरने मे. अनंत शून्य से हमारा आविर्भाव हुआ hai. पता hai ये जो तुम्हे चैतन्य की अनुभूति हो रही hai तुम इसे साधारण मत समझना. ये जो तुम देख रहे हो, जो सुन रहे हो, जो अनुभव कर रहे हो ये सब व्यक्त हुआ hai. तुम मे अव्यक्त तुम्हारे माध्यम से व्यक्त हुआ hai. तुम एक एक क्षण avyakt को व्यक्त मे परिवर्तित कर रहे हो. यह तुम्हारा सौभाग्य hai की अयक्त ने तुम्हे चुना, तुम्हे माध्यम बनाया ये संसार शून्य से निकलकर व्यक्त हुआ hai और अंततः शून्य मे ही मिलेगा. इसलिए तुम सत्य पाने की चिंता मत करना। देर सबेर सत्य सभी को मिलेगा ऐसा कभी न होगा की तुम अनंत काल तक सत्य से च्युत rahoge. एक एक अनु तक को सत्य मिलेगा. एक दिन. इसलिए टू मैं कहता हूँ की तुम जो कर रहे हो थिक ही hai. ये पुरा अस्तित्व एक साथ अव्यक्त की दिशा मे जा रहा hai. सत्य की स्थिति कुछ ऐसी hai - जब सब कुछ गिर जाए, अहंकार, ज्ञान ये सब गिर जायें, tab जो स्थिति बनती hai वही सत्य की स्थिति hai.
1 comment:
My god! itni sari baaten kahan se aati hai dimag mein? That too all are very practical if one can think upon this. Very true said. Hamsab sirf pustak paas karne ke liye hi padhte hein aur kya padha usper kabhi vichar bhi nahi karte hein....isliye itni sari problems hame nazar aati hai. Lekin ham aisa kyun karte hein?
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