बुद्धत्व मानव जाती की पराकाष्ठा है. इसके आगे कुछ भी नही है. बुद्धत्व अन्तिम घटना है. इसके आगे कभी कोई नही गया. बुद्ध भी नही गए. बुद्धत्व पूर्णतः पारमार्थिक है. संसार अपारमार्थिक है. संसार मे जीवन कटता है किसी तरह कट जाता hai. एक दिन मौत आती है, और सब कुछ खत्म हो जाता है. सब छीन जाता है. सारा बुने हुए सपने टूट जाते हैं. यही तो संसार है. मैंने आजतक जितने भी लोगों से मिला उनका जीवन किसी तरह से चल रहा है. ज़िंदगी को घसीट रहे हैं. उनको कुछ मिल जाता है करने को. कुछ भी करेंगे पर करेंगे. करना इतना आवश्यक हो गया की मनुष्य अपने अस्तित्व को ही भूल गया. भौतिकवाद बुद्धत्व से ऊपर हो गया. मैं भौतिकवाद का विरोधी नही हूँ. मैं भौतिकवाद को बुद्धत्व का ही एक हिस्सा मानता हूँ। बुद्धत्व का मतलब पूर्णता से है. बुद्धत्व मे सबकुछ समाया हुआ है. इसके बाहर कुछ भी नही है. अस्तित्व पहली घटना है. अस्तित्व अकेला है. अस्तित्व केन्द्र है. संसार उसकी परिधि है. मनुष्यता हमेशा परिधि पर ही रही है. मैंने आजतक किसी भी ऐसे व्यक्ति से नही मिला जो केन्द्र पर हों. अस्तित्व से चैतन्य का आविर्भाव होता है. वही चैतन्य घटघट मे विद्यमान है अस्तित्व और चैतन्य से संकर्षण से उर्जा का निर्माण होता है. उसे उर्जा से हमरी ज़िंदगी चलती है. अव्यक्त व्यक्त हुआ है. अव्यक्त से व्यक्त की घटना संकर्षण की घटना है. अव्यक्त व्यक्त को स्थायित्व प्रदान करता है. अव्यक्त के बिना व्यक्त का होना असंभव है. व्यक्त संसार है. अव्यक्त ब्रह्मं है. चैतन्य व्यक्त और अव्यक्त के बीच के कड़ी है. चैतन्य व्यक्त और अव्यक्त को जोरती है. चैतन्य का दूसरा नाम प्राण भी है. इसलिए तो कहा गया - "इदम प्रान्मयम जगतम". इस श्लोक मे प्राण की गत्यावस्था के बारे मे कहा गया है. प्राण की गत्यावस्था संसार है. दूसरे श्लोक मे प्राण की निस्चालावास्था के बारे मे कहा गया है. "निस्चालम ब्रह्मं उच्यते". प्राण की निश्चअल अवस्था ब्रह्मं है. ये दो श्लोक काफ़ी हैं. पहले श्लोक मे संसार के बरे मे कहाँ गया है. दूसरे श्लोक मे ब्रह्मं के बरे मे कहाँ गया है. दो चीज ही तो है. पहला संसार और दूसरा ब्रह्मं. वस्तुतः है एक ही - ब्रह्मं. लेकिन तात्कालिक रूप से समझने के लिए दो भागो मे बाँट दिया गया है. संसार और ब्रह्मं. अगर कोई इस दो श्लोक को आत्मसात कर ले तो उसके लिए और कुछ करने को नही बचता. मैं किताब पढने की बात मे जादा यकीन नही करता हूँ. किताब पढने से किसी विषय वस्तु के सम्बन्ध मे मात्र जानकारी प्राप्त होती है. उससे आत्मसात नही होता. मान लो की तुमने किसी किताब मे किसी उपकरण के बारे मे पढ़ा. तुम थोड़े जानकर हो गए. तुम्हारी जानकारी बढ़ी. इस से जादा तो सामान्यतः कुछ होता नही है. लेकिन हो सकता है अगर तुम ठीक से पढो. अगर तुम ठीक से आत्मसात करो. अगर तुम उस उपकरण के अस्तित्व का पता लगाओ. लेकिन हम सामान्यतः ऐसा करते नही. हम ऊपर ऊपर पढ़ लेते हैं. थोरा आईडिया ले लेते हैं. कम पढो लेकिन ठीक से पढो. लेकिन हम थिक उल्टा करते हैं. हम पढ़ते तो बहोत हैं, पुरी ग्रंथालय पढ़ जाते हैं पर आत्मसात नही हो पाटा. वस्तुतः हम अपने अस्तित्व को पूर्णतः भूल चुके हैं. हम भूल ही गए की हम एक मात्र साक्षी हैं. अपने अस्तित्व का साक्षी होओं और बुद्धत्व को प्राप्त करो
मैं कोई साधू या कोई महात्मा नही हूँ। क्या हूँ पता नही. जानना भी नही चाहता. बस मैं हूँ इतना काफी है. एक दिन मेरा मैं विसर्जित हो जाएगा और सिर्फ़ हूँ बचेगा. ब्रह्मं का इस से जादा आविर्भाव हुआ भी नही था. इसलिए तो जादातार पर्वत, मिटटी और धूल hain is samsar मे. कंकर पत्थर ही जादा पैदा हुए. हीरे तो काफी कम हैं. इसलिए मुझे कभी कभी लगता है की अव्यक्त से व्यक्त की घटना मे थोरी कमी रह गई होगी नही तो हीरों के पहार हो सकते थे. अरबों खरबों बुद्ध जैसे आदमी पैदा हो सकते थे. सर्वत्र ब्रह्मं का सुन्दरतम रूप दिखाई पर सकता था. देखने वाले देख लेते हैं। बद्ध देख लेंगे. तुम न देख पाओगे. तुम्हे अच्छा बुरा दिखाई देगा. दोष तुम्हारा नही है. दोष मान्यता है. मान्यता छोर दो सब साफ दिखाई देगा
:)
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