जैसा की मैंने कहा था की प्रेम का निस्वार्थ होना जरुरी है। निस्वार्थ प्रेम की कसौटी है। अगर प्रेम मे थोरा भी स्वार्थ है तो वो प्रेम नही है। फिर वो वासना है। इंग्लैंड मे जब औद्योगिक क्रांति हुई तो प्रेम का समाज मर गया। समय कम हो गया। प्रेम करने के लिए समय चाहिए । अब समय कहाँ हैं? सुबह से लेके शाम तक तो हम अपने काम काज मे व्यस्त रहते हैं। काम इतना महत्वपूर्ण हो गया की प्रेम की अभिव्यक्ति भी काम करने से होने लगी। शाम के बाद भी हमें चैन कहाँ। रात्रि मे तो हम भोजन करते हैं, टीवी देखते हैं, ऑरकुट करते हैं, फिर सो जाते हैं। फिर हमने प्रेम किया कब? २४ घंटे के समय मे हमारे पास १० मिनट भी नही बचता है प्रेम करने के लिए। हम हमेसा कुछ करते रहते हैं। हमेसा। और जन्म, जन्मान्तर, कल्प, कल्पान्तर तक करते रहते हैं। और भी हमें कुछ नही मिलता है। मैंने आजतक ऐसे एक भी व्यक्ति से नही मिला जो कुछ नही कर रहा है। जेसुस ने कुछ नही किया होगा। बुद्ध ने कुछ नही किया होगा। कुछ नही किया और सब कुछ हुआ। हम किए और कुछ भी नही हुआ। हम करते ही रह गए। प्रेम का हमें कुछ भी नही पता चल paaya। आज के समाज का जो प्रेम है वो रात का प्रेम है। क्योंकि दिन भर तो हम अपने काम काज मे व्यस्त रहते हैं। दिन मे हम प्रेम की कल्पना भी नही कर पाते। क्योंकि हमारे काम हमने कल्पना भी नही करने देते। हमने भौतिक उत्पाद को तो बढ़ा दिया पर उसका हमें मूल्य चुकाना पारा। मूल्य तो चुकाना ही परता है। बिना मूल्य चुकाए सिर्फ़ सत्य ही मिल सकता है। सत्य को छोर कर हर चीज का मूल्य चुकाना परता है। भौतिक उत्पाद मे बढोतरी का मूल्य ये है की हमने प्रेम को भुला दिया। बस प्रेम राख के रूप मे रह गई है। की कभी कोई रोमियो जूलियट हुआ होगा। की कभी कोई लैला मजनू हुआ होगा। अब लैला मजनू नही पैदा होते। हो भी नही सकते। कोई सम्भावना नही है की पारमार्थिक प्रेमी पैदा हो जाए। कहाँ से होगा ? समाज अब उपभोक्तावादी हो गया है। प्रेम करने की जगह नही है अब। कब प्रेम करोगे? समय नही है प्रेम करने का। आज हर कोई व्यस्त है अपने काम काज me। "Sweetheart, I am in the middle of a meeting call u later!!" अब प्रेम नही होते हैं, अब मीटिंग होती है।
प्रेम का वास्तविक सिद्धांत था अद्वैत को प्राप्त करना। प्रेम अद्वैत की तरफ की यात्रा है। दो मिल के एक होना। एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। प्रेम तो बस माध्यम है। होना तो हमें एक ही है। चाहे वो प्रेम से हो या फिर ध्यान से हो या फिर किसी और माध्यम से हो। हम दो नही समझ सकते। दो होता भी नही हैं। क्योंकि अस्तित्व एक है। इसलिए एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। अगर तुम ठीक से अवलोकन करो तो हमारे सारे कार्य अद्वैत की तरफ़ की यात्रा है। बस हमें प्रतीति होती है की बहोत कुछ हो रहा है। हो कुछ भी नही रहा है। मृगतृष्णा की भांति हम जीवन काटते हैं। की भविष्य मे कुछ मिल जाए। अब तक तो कुछ मिला नही। अगर कुछ मिलना ही होता तो अब तक मिल गया होता। जन्म जन्मान्तर बीत जाते हैं फिर भी हमारी निगाहें भविष्य पे टिकी होती हैं। की कहीं कुछ मिल जाए। और नही मिलता है। कभी किसी को नही मिला। कुछ है ही नही तो मिलेगा क्या। और अगर मिले भी, तो मिल ही गया। अब मिले, तब मिले उस से क्या फर्क परता है। अगर मिलेगा, तो ये समझो की मिल ही गया। क्योंकि मिलेगा ही, मतलब मिल ही गया। फिर किस बात का रोना धोना। क्योंकि सब तो मिला ही हुआ है तुम्हे। मिलेगा, मतलब मिल ही गया, मतलब मिला ही हुआ है।
प्रेम का वास्तविक सिद्धांत था अद्वैत को प्राप्त करना। प्रेम अद्वैत की तरफ की यात्रा है। दो मिल के एक होना। एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। प्रेम तो बस माध्यम है। होना तो हमें एक ही है। चाहे वो प्रेम से हो या फिर ध्यान से हो या फिर किसी और माध्यम से हो। हम दो नही समझ सकते। दो होता भी नही हैं। क्योंकि अस्तित्व एक है। इसलिए एक होना हमारी गहनतम आकांक्षा है। अगर तुम ठीक से अवलोकन करो तो हमारे सारे कार्य अद्वैत की तरफ़ की यात्रा है। बस हमें प्रतीति होती है की बहोत कुछ हो रहा है। हो कुछ भी नही रहा है। मृगतृष्णा की भांति हम जीवन काटते हैं। की भविष्य मे कुछ मिल जाए। अब तक तो कुछ मिला नही। अगर कुछ मिलना ही होता तो अब तक मिल गया होता। जन्म जन्मान्तर बीत जाते हैं फिर भी हमारी निगाहें भविष्य पे टिकी होती हैं। की कहीं कुछ मिल जाए। और नही मिलता है। कभी किसी को नही मिला। कुछ है ही नही तो मिलेगा क्या। और अगर मिले भी, तो मिल ही गया। अब मिले, तब मिले उस से क्या फर्क परता है। अगर मिलेगा, तो ये समझो की मिल ही गया। क्योंकि मिलेगा ही, मतलब मिल ही गया। फिर किस बात का रोना धोना। क्योंकि सब तो मिला ही हुआ है तुम्हे। मिलेगा, मतलब मिल ही गया, मतलब मिला ही हुआ है।
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