५००० साल से इतिहास को अगर तुम देखो, तो वहां तुम्हे बहोत कम लोग ऐसे मिलेंगे जो सच्चे प्रेमी थे। इसलिए हम एक खुशहाल समाज बनने मे नाकामयाब रहे हैं और रहेंगे। प्रेम ही एक ऐसी चीज है जो मनुष्य जाती को सुख और शाति प्रदान कर सकता है। पर प्रेमी होने से पहले तुम्हे आत्मप्रेमी होना होगा। आत्मप्रेमी ही सच्चा प्रेमी होता है। जिसने अपने आप को प्रेम नही किया और दूसरों को भी प्रेम नही कर सकेगा और नही कर पाया है। क्योंकी हमारी सारी अभिव्यक्ति हमारे केन्द्र से उत्त्पन्न होती है। प्रेम भी हमारी ही अभिव्यक्ति है। प्रेम कारन है, अस्तित्व उसका स्त्रोत है। इसलिए पहले अपने अस्तित्व को पहचानो। की हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं। और हम क्या कर रहे हैं। हम यहाँ क्यों आए हैं यह उतना बरा प्रश्न नही है जितना बरा की हम अब क्या करें। आ तो गए लेकिन अब करें क्या? प्रेम करें? प्रेम करने के लिए इतनी जल्दीबाजी मत करो। प्रेम बहोत दूर की घटना है। उस से पहले ये जानो, या ऐसा कहें की यह अनुभव करो। जानना और अनुभव मे भेद है। जमीन आसमान का भेद है। जानना यांत्रिक घटना है। अनुभव आत्मा की घटना है। स्कूल, कॉलेज मे हमें सिर्फ़ ज्ञान दिया जाता है। हमारी मस्तिष्क की तंतुओं और कोशिकाओं को ज्ञान भर भर कर दूषित कर दिया जाता है। उस ज्ञान का कोई मोल नही है जो तुम्हे मुक्त न करे। ज्ञान की पराकाष्टा अज्ञान है। अगर जानना ही है तो अकारण को जानो। मूल तत्व को जानो। जिसे जानने के बाद और कुछ जानना शेष नही रहता। अगर कारण को जाना, अगर सीमाओं को जाना तो तुम कुछ भी न जाने। फिर सारा जीवन व्यर्थ हुआ। असीम बनो। तुम बुद्दे लोगों को देखो, उनके पास ज्ञान का अम्बार होता है, फिर भी वे मुक्त नही हो पाते। उनका वही ज्ञान उनके किसी काम नही आता। क्योंकि जीवन भर तो उन्होंने वोही समझा जिसका कारण है। अकारण का तो उन्हें कुछ पता नही। उनकी जीवन की एक शैली होती है। वो जीवन भर उस शैली के साथ चलते हैं। और अगर कहीं उन्हें बाद मे पता चले की उनकी जीवनशैली ग़लत थी और तब तक वो बुजुर्ग हो गए हों तो स्थिति बहुत भयावह है। जीवन के अन्तिम क्षण मे पता चले की हमारी जीवन के प्रति जो अव्धार्नाएं थी वो ग़लत थीं तो इस से बरा दुर्भाग्य और क्या होगा। और अकसर ऐसाही होता हिया। क्योंकि हमारी सारी अव्धार्नाएं कारण पे टिकी होती हैं। और अगर कारण समाप्त हो जायें तो अवधारणाएँ भी समाप्त हो जाएँ। लेकिन अगर तुम उस कारण के साक्षी रहते तो तुम्हे फर्क नही पड़ेगा। क्योंकि तुम सिर्फ़ साक्षी हो। साक्षी को कभी कुछ फर्क नही परता। अगर सूरज पश्चिम मे भी उगे फिर भी साक्षी को कोई फर्क नही परता। साक्षी अन्तिम बात है। साक्षी और सत्य एक ही बात है। बस साक्षी थोरा प्रायोगिक है। असली प्रेम वो है जिसे साक्षी भाव से किया गया हो। जीसस का प्रेम साक्षी का प्रेम था। वो प्रेम के प्रति साक्षी थे। यह समाज की एक चाल थी की हमने साक्षी को भुला दिया। समाज ने जो भी सत्य और ज्ञान तुम्हे सिखाये हैं, तुम ये मत समझ लेना की ज्ञान वैसा ही है। समाज ने सत्य को काफ़ी तोर मरोर के प्रकट किया है। जैसा है वैसा नही बताया। काफ़ी घुमा फिरा कर के बताया है। साक्षी को ही हटा दिया। समाज को डर था की सारे मनुष्य बुद्ध जैसे न हों जाएँ। इसलिए ज्ञान को काफ़ी तोर मरोअर के लिखा गया। राजाओं ने लिखने वाले को ठीक से नही लिखने दिया। आज हमें साक्षी के बारे मे कुछ भी नही पता। पहले का समाज साक्षी का समाज था। अगर तुम साक्षी न हो तो प्रेम भी नही कर पाओगे। फिर वो तुम्हारी ही अभिव्यक्ति होगी। साक्षी होना प्रेम की तरफ़ पहला कदम है। समाज ने साक्षी की भुलादिया। फलतः प्रेम भी गायब हो गया। प्रेमहीन समाज अशांत होता है। हमने कभी भी प्रेममय समाज नही पाया है। इसलिए अगर तुम साक्षी हो तो प्रेम भी कर पाओगे।
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